धर्म एवं दर्शन >> मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामअश्विनी पाराशर
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रामायण के प्रमुख पात्र श्रीराम पर आधारित कथा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समस्त भारतीय साहित्य में रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति,
सभ्यता, और दर्शन के ऐसे आधार ग्रन्थ हैं जिन्हें, प्रत्येक भारतीय
बार-बार पढ़ना चाहता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम उनकी चेतना में सांस
की तरह रमें हैं।
अपने पाठकों की मांग को ध्यान में रखते हुए हमने रामायण के प्रमुख पात्रों का औपन्यासिक रूप कथा की सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, कर्तव्यनिष्ठ लक्ष्मण महासती सीता, शांत उर्मिला, पवनपुत्र हनुमान, त्यागमूर्ति भरत और महाबली रावण....सब अपने-अपने धरातल पर खड़े जीवन के अनेक रंग बिखेर रहे हैं।
आदिकवि बाल्मीकि ने संपूर्ण रामकथा में राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में किया था और उसके बाद अनेक प्रकार से रामकथा का स्वरूप विकसित होता रहा है और बाद में आनेवाले रचनाकारों ने- ‘हरि अनंत हरि कथा अनन्ता’ के आधार पर राम की कथा को उसके मूल्य की रक्षा करते हुए अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को भक्ति का व्यवाहारिक केन्द्र बिन्दु बना दिया। उनके राम भक्ति के आधार हैं और जीवन ही अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद भी राम कथा को विभिन्न रूपों में अनुभव किया जाता रहा और जहां-जहां इस विराट भावभूमि में कवियों की दृष्टि में, जो स्थल मानवीय दृष्टि से उपेक्षित रह गए उन्हें केन्द्र बनाकर राम की कथा में अन्य आयाम जोड़ने को उपक्रम भी जारी रहा।
अपने पाठकों की मांग को ध्यान में रखते हुए हमने रामायण के प्रमुख पात्रों का औपन्यासिक रूप कथा की सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, कर्तव्यनिष्ठ लक्ष्मण महासती सीता, शांत उर्मिला, पवनपुत्र हनुमान, त्यागमूर्ति भरत और महाबली रावण....सब अपने-अपने धरातल पर खड़े जीवन के अनेक रंग बिखेर रहे हैं।
आदिकवि बाल्मीकि ने संपूर्ण रामकथा में राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में किया था और उसके बाद अनेक प्रकार से रामकथा का स्वरूप विकसित होता रहा है और बाद में आनेवाले रचनाकारों ने- ‘हरि अनंत हरि कथा अनन्ता’ के आधार पर राम की कथा को उसके मूल्य की रक्षा करते हुए अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को भक्ति का व्यवाहारिक केन्द्र बिन्दु बना दिया। उनके राम भक्ति के आधार हैं और जीवन ही अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद भी राम कथा को विभिन्न रूपों में अनुभव किया जाता रहा और जहां-जहां इस विराट भावभूमि में कवियों की दृष्टि में, जो स्थल मानवीय दृष्टि से उपेक्षित रह गए उन्हें केन्द्र बनाकर राम की कथा में अन्य आयाम जोड़ने को उपक्रम भी जारी रहा।
भूमिका
रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के विराट् कोष हैं और इन दोनों में
रामायण का सम्मान भक्ति की दृष्टि से महाभारत से अधिक है। यद्यपि रामायण
में पर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्रतिपादन है और महाभारत में कौरवों
पांडवों की कथा के बहाने कृष्ण का ब्रह्मत्व प्रतिष्ठित किया गया है।
रामायण का मान सामान्य जन में इसलिए अधिक है कि उसके चरित नायक राम का जीवनचरित्र व्यक्ति और समाज दोनों के लिए जीवन मूल्य की दृष्टि से
अनुकरणीय है।
आदिकवि बाल्मीकि ने सम्पूर्ण रामकथा में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिपादित कर एक महान सांस्कृतिक आधार प्रतिष्ठित किया था और उसके बाद अनेक प्रकार के राम कथा का स्वरूप विकसित होता रहा। जैन धर्मावलम्बियों ने अपने ढंग से इस कथा को प्रस्तुत किया और बाद में आने वाले रचनाकारों ने –हरि अनंत हरि कथा अनंता के आधार पर राम की कथा को उसके मूल्य की रक्षा करते हुए अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को भक्ति का व्यावहारिक केन्द्रबिन्दु बना दिया। उनके राम भक्ति के आधार हैं और उनका जीवन ही अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद भी राम कथा को विभिन्न रूपों में अनुभव किया जा रहा और जहाँ-जहाँ इस विराट भावभूमि में कवियों की दृष्टि में, जो स्थल मानवीय दृष्टि से उपेक्षित रह गये उन्हें केन्द्र बनाकर राम की कथा में अन्य आयाम जोड़ने को उपक्रम भी जारी रहा।
रामकथा हमारे सामने जहाँ भक्ति का बहुत बड़ा मूल्य प्रस्तुत करती है वहां कुछ ऐसे प्रश्न छोड़ देती है। जिनका कोई तर्कपूर्ण समाधान शायद नहीं मिल पाता। और जब मन किसी बात को मानने से मना कर दे और उसका तर्कपूर्ण समाधान न हो तब एक गहरे रचनात्मक द्वन्द्व की रचना होती है। हमने रामकथा के विभिन्न पात्रों को उस कथा के मूल आदर्शवृत्त में ही रखकर मनन और अनुसंधान से, औपन्यासिक रूप में चितित्र करने का प्रयास किया है। क्योंकि, रामकथा के प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी जीवनदृष्टि या जीवनमूल्य को भी प्रतिपादित करता है। राम यदि आदर्श पुत्र, पति हैं तो लक्ष्मण आदर्श भाई के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी प्रकार अन्य पात्रों का मूल मूल्यवृत्त भी देखा जा सकता है। अब आधुनिक दृष्टि में यह मूल्यवृत्त कहां तक हमारे जीवन में रच सकता बहुत बड़ा प्रश्न है। और इसलिए किसी भी लेखक का यह रचनात्मक प्रयास कि पुराकथा के पात्रों में कोई मानसिक द्वन्द्व हो रहा होगा ? क्या उन्होंने सहज मानव के रूप में होठों को मुस्कराने की और आँखों को रोने की आज्ञा दी होगी ? और तब यह अनुभव करते हैं कि उस विराट मूल्य के आलोक में छोटा-सा मानवीय प्रकाशखण्ड उठाकर दृष्टिकोण से अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर सकें। रामगाथा के विशिष्ट पात्रों पर औपन्यासिक रचनावली के पीछे हमारा यही दृष्टिकोण रहा है कि हम उस विराट को अपनी दृष्टि से अपने लिए किस रूप में सार्थक कर सकते हैं।
गोस्वामीजी के शब्दों में-
आदिकवि बाल्मीकि ने सम्पूर्ण रामकथा में राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिपादित कर एक महान सांस्कृतिक आधार प्रतिष्ठित किया था और उसके बाद अनेक प्रकार के राम कथा का स्वरूप विकसित होता रहा। जैन धर्मावलम्बियों ने अपने ढंग से इस कथा को प्रस्तुत किया और बाद में आने वाले रचनाकारों ने –हरि अनंत हरि कथा अनंता के आधार पर राम की कथा को उसके मूल्य की रक्षा करते हुए अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामकथा को भक्ति का व्यावहारिक केन्द्रबिन्दु बना दिया। उनके राम भक्ति के आधार हैं और उनका जीवन ही अनुकरणीय है। गोस्वामी तुलसीदास के बाद भी राम कथा को विभिन्न रूपों में अनुभव किया जा रहा और जहाँ-जहाँ इस विराट भावभूमि में कवियों की दृष्टि में, जो स्थल मानवीय दृष्टि से उपेक्षित रह गये उन्हें केन्द्र बनाकर राम की कथा में अन्य आयाम जोड़ने को उपक्रम भी जारी रहा।
रामकथा हमारे सामने जहाँ भक्ति का बहुत बड़ा मूल्य प्रस्तुत करती है वहां कुछ ऐसे प्रश्न छोड़ देती है। जिनका कोई तर्कपूर्ण समाधान शायद नहीं मिल पाता। और जब मन किसी बात को मानने से मना कर दे और उसका तर्कपूर्ण समाधान न हो तब एक गहरे रचनात्मक द्वन्द्व की रचना होती है। हमने रामकथा के विभिन्न पात्रों को उस कथा के मूल आदर्शवृत्त में ही रखकर मनन और अनुसंधान से, औपन्यासिक रूप में चितित्र करने का प्रयास किया है। क्योंकि, रामकथा के प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी जीवनदृष्टि या जीवनमूल्य को भी प्रतिपादित करता है। राम यदि आदर्श पुत्र, पति हैं तो लक्ष्मण आदर्श भाई के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी प्रकार अन्य पात्रों का मूल मूल्यवृत्त भी देखा जा सकता है। अब आधुनिक दृष्टि में यह मूल्यवृत्त कहां तक हमारे जीवन में रच सकता बहुत बड़ा प्रश्न है। और इसलिए किसी भी लेखक का यह रचनात्मक प्रयास कि पुराकथा के पात्रों में कोई मानसिक द्वन्द्व हो रहा होगा ? क्या उन्होंने सहज मानव के रूप में होठों को मुस्कराने की और आँखों को रोने की आज्ञा दी होगी ? और तब यह अनुभव करते हैं कि उस विराट मूल्य के आलोक में छोटा-सा मानवीय प्रकाशखण्ड उठाकर दृष्टिकोण से अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर सकें। रामगाथा के विशिष्ट पात्रों पर औपन्यासिक रचनावली के पीछे हमारा यही दृष्टिकोण रहा है कि हम उस विराट को अपनी दृष्टि से अपने लिए किस रूप में सार्थक कर सकते हैं।
गोस्वामीजी के शब्दों में-
सरल कवित, कीरति बिमल, सुनि आदरहिं सुजान।
सहज बैर बिसराय रिपु, जो सुनि करै बखान।।
सहज बैर बिसराय रिपु, जो सुनि करै बखान।।
और हम इस रास्ते पर यदि चल पाते तो चलने की सोच तो सकते हैं।
हमारे
सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहा है कि जहां-जहां रामकथा के बड़े-बड़े
ग्रन्थ कुछ नहीं बोलते वहां उसी चेतना में हम गद्य में कैसे उस अबोल के
यथार्थ को चित्रित करें। पुराकथा की दृष्टि से जो सच हो सकता है
और
आधुनिक दृष्टि से जो स्वीकार भी हो सकता हो ऐसे कथातंत्रों को कल्पनाशीलता
से रचते हुए हमारा हमेशा ध्यान रहा है कि मनुष्य के अन्तर का उदात्त भाव
भी मुखर हो सके क्योंकि हमने जब-जब इन बड़े पात्रों से साक्षात्कार किया
है तब-तब एक उदात्त तत्त्व की अलोक की तरह से दृष्टि के सामने आया है। उस
आलोक में से थोड़ा-बहुत अब हमारी ओर से आपके सामने है।
डॉ. अश्विनी पाराशर
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
जन्म और बाल्यकाल
सरयू नदी के किनारे बसा कोशल नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा जनपद था। धन धान्य
से संपन्न सभी लोग यहां हर प्रकार से सुखी थे। इस जनपद में ही समस्त लोकों
में विख्यात अयोध्या नाम की नगरी थी। जिसे स्वयं महाराज मनु ने पुराकाल
में बनवाया और बसाया था।
यह सुंदर नगरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। सुंदर-सुन्दर फल देने वाले वृक्षों से सजा राजमार्ग, खिले हुए फूलों से लदे फूलदार पौधे उपवन की शोभा को बढ़ा रहे थे।
बाहर से आनेवाले हर यात्री को यह नगरी देवराज इन्द्र की अमरावती के समान लगती थी।
बड़े-बड़े फाटक, उन पर खड़े जागरुक पहरेदार भीतर अगल-अलग बाजार, शिल्पी और कलाकार, नाटक-मंडलियां, अप्सरा-सी नृत्यांनाएँ, ऊंची-ऊँची अट्टालिकाएं अयोध्या नगरी की शोभा को बढ़ाने वाले महत्त्वपूर्ण अंग थे। लगता था कि यह स्थान देवलोक की तपस्या से प्राप्त हुए सिद्धों के विमान की भाँति भूमंडल में सर्वोच्च है।
इसी स्वर्गीय छटावाली विशाल नगरी में अयोध्या अपनी इसी सुन्दरता के कारण कोशल की राजधानी थी। यहां कोई भी तो ऐसा नहीं था जो अग्निहोत्र या यज्ञ न करता हो। महाराज दशरथ के मंत्रिगण भी योग्य, विद्वान, आचरवान और राजा का प्रिय करने वाले थे। इसीलिए महाराज दशरथ की ख्याति की पताका दूर-दूर तक फैली हुई थी।
महामुनि वसिष्ठ और वामदेव राज्य में मानवीय ऋत्विज थे। इनके अतिरिक्त भी गौतम, मार्कण्डेय, जबालि आदि भी सम्मान पाते थे। न्याय, धर्म और व्यवस्था के कारण राज्य में सभी को यथोचित सम्मान प्राप्त होता था।
ऐसे गुणवान मंत्रियों के साथ रहकर अयोध्या के राजा दशरथ उस पृथ्वी पर शासन करते थे। उनका कोई शत्रु नहीं था सामन्त उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे।
लेकिन सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ फिर भी मन से बहुत चिंतित थे उनके वंश को चलानेवाला कोई पुत्र नहीं था।
केवल एक पुत्री थी जिसका नाम शांता था। महाराज ने शांता का विवाह मुनि कुमार ऋष्य श्रृंग्य से कर दिया था। यह विभाण्डक मुनि के पुत्र थे।
पुत्र की कामना जामाता के प्राप्त होने पर भी नहीं हुई और राजा की चिंता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रही। एक दिन महाराज दशरथ ने विचार किया कि यदि अश्वमेध यज्ञ किया जाए तो अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति हो सकती है। यह सोचकर महाराज ने विद्वान मंत्रियों और कुलपुरोहित वसिष्ठ, वामदेव तथा जाबालि आदि तपश्वियों को बुलाकर अपने मन की इच्छा को प्रकट करते हुए कहा।
‘‘मैं सदा पुत्र के लिए विलाप करता रहता हूँ। पुत्र के अभाव में यह राज्यसुख मेरे लिए निरर्थक होकर रह गया है इसलिए मैंने निश्चय किया है कि शास्त्र के अनुसार इस पावक यज्ञ का अनुष्ठान करूँ। आप सभी लोग गुणी महात्मा हैं। कृपया मुझे बताइए कि मेरी पुत्र प्राप्ति की इच्छा किस प्रकार पूर्ण होगी ?’’
‘‘यह तो बहुत अच्छा विचार है राजन् !’’ महामुनी वासिष्ठ ने उनका अनुमोदन करते हुए कहा और उनकी प्रशंसा की।
जबालि और वामदेव मुनियों ने, सुमंत्र आदि मंत्रियों ने भी इस पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की और समर्थन करते हुए कहा, ‘‘महाराज ! यह बहुत उत्तम विचार है। इसके लिए शीघ्र ही यज्ञ-सामग्री का संग्रह किया जाए।’’
यज्ञ के लिए विचार करते हुए सरयू नदी के तट पर बनायी गई। भूमंडल में भ्रमण के लिए यज्ञ का अश्व छोड़ा गया और मुनि और मुनि कुमार ऋषि श्रृंग को यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त किया गया।
महाराज दशरथ के इस पावक यज्ञ में वेद के अनेक पारंगत ब्राह्मण और ब्रह्मवादी ऋत्विज उपस्थित हुए।
मुनि वसिष्ठ और ऋष्य श्रृंग दोनों के आदेश से शुभ नक्षत्रवाले दिन महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के साथ यज्ञ की दीक्षा ली। इस समय तक यज्ञ का अश्व भी भूमंडल में भ्रमण करके लौट आया था।
इस यज्ञ में विधिवत आहुतियां दी गईं। सभी कार्य बिना बाधा और बिना भूल के सम्पन्न हुए। यज्ञ में प्रतिदिन अनेक ब्राह्मण भोजन करते थे, सभी को उनका यथा अनुरूप यज्ञोशेष प्राप्त होता था। अपने कुल की वृद्धि करनेवाले महाराज दशरथ ने यज्ञ पूर्ण होने पर होता को दक्षिणा रूप में अयोध्या से पूर्व दिशा का सारा राज्य सौंप दिया। अध्वर्यु को पश्चिम दिशा तथा ब्रह्मा को दक्षिण दिशा का राज्य दिया और उदगाता को उत्तर दिशा की सारी भूमि दान की।
यह दान देकर महाराज दशरथ प्रसन्न हुए किन्तु ब्राह्मणों और पुरोहितों ने उनसे निवेदन किया, ‘‘हे महाराज ! हम तो वेदों का स्वाध्याय करते हैं, हम इस भूमि का क्या करेंगे। आप तो हे राजन ! हमें इस भूमि के मूल्य के समान कोई राशि दें, वही उपयोगी होगा।’’
यह देखकर महाराज ने उन्हें गौएं और स्वर्ण मुद्राएं भेंट की।
यज्ञ की समाप्ति पर महाराज दशरथ ने मुनी ऋष्य श्रंग से अपने लिए पुत्रप्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने के लिए निवेदन किया।
‘‘राजन ! इस कुल के भार को वहन करने में समर्थ आपके यहां चार पुत्र उत्पन्न होंगे।’’ यह कहते हुए महामुनी ऋष्य श्रंग ने अर्थववेद के मंत्रों से पुत्रेष्ठि यज्ञ का प्रारम्भ किया और विधि के अनुसार उसमें आहुतियां डालीं।
यह सुंदर नगरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। सुंदर-सुन्दर फल देने वाले वृक्षों से सजा राजमार्ग, खिले हुए फूलों से लदे फूलदार पौधे उपवन की शोभा को बढ़ा रहे थे।
बाहर से आनेवाले हर यात्री को यह नगरी देवराज इन्द्र की अमरावती के समान लगती थी।
बड़े-बड़े फाटक, उन पर खड़े जागरुक पहरेदार भीतर अगल-अलग बाजार, शिल्पी और कलाकार, नाटक-मंडलियां, अप्सरा-सी नृत्यांनाएँ, ऊंची-ऊँची अट्टालिकाएं अयोध्या नगरी की शोभा को बढ़ाने वाले महत्त्वपूर्ण अंग थे। लगता था कि यह स्थान देवलोक की तपस्या से प्राप्त हुए सिद्धों के विमान की भाँति भूमंडल में सर्वोच्च है।
इसी स्वर्गीय छटावाली विशाल नगरी में अयोध्या अपनी इसी सुन्दरता के कारण कोशल की राजधानी थी। यहां कोई भी तो ऐसा नहीं था जो अग्निहोत्र या यज्ञ न करता हो। महाराज दशरथ के मंत्रिगण भी योग्य, विद्वान, आचरवान और राजा का प्रिय करने वाले थे। इसीलिए महाराज दशरथ की ख्याति की पताका दूर-दूर तक फैली हुई थी।
महामुनि वसिष्ठ और वामदेव राज्य में मानवीय ऋत्विज थे। इनके अतिरिक्त भी गौतम, मार्कण्डेय, जबालि आदि भी सम्मान पाते थे। न्याय, धर्म और व्यवस्था के कारण राज्य में सभी को यथोचित सम्मान प्राप्त होता था।
ऐसे गुणवान मंत्रियों के साथ रहकर अयोध्या के राजा दशरथ उस पृथ्वी पर शासन करते थे। उनका कोई शत्रु नहीं था सामन्त उनके चरणों में मस्तक झुकाते थे।
लेकिन सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ फिर भी मन से बहुत चिंतित थे उनके वंश को चलानेवाला कोई पुत्र नहीं था।
केवल एक पुत्री थी जिसका नाम शांता था। महाराज ने शांता का विवाह मुनि कुमार ऋष्य श्रृंग्य से कर दिया था। यह विभाण्डक मुनि के पुत्र थे।
पुत्र की कामना जामाता के प्राप्त होने पर भी नहीं हुई और राजा की चिंता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रही। एक दिन महाराज दशरथ ने विचार किया कि यदि अश्वमेध यज्ञ किया जाए तो अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति हो सकती है। यह सोचकर महाराज ने विद्वान मंत्रियों और कुलपुरोहित वसिष्ठ, वामदेव तथा जाबालि आदि तपश्वियों को बुलाकर अपने मन की इच्छा को प्रकट करते हुए कहा।
‘‘मैं सदा पुत्र के लिए विलाप करता रहता हूँ। पुत्र के अभाव में यह राज्यसुख मेरे लिए निरर्थक होकर रह गया है इसलिए मैंने निश्चय किया है कि शास्त्र के अनुसार इस पावक यज्ञ का अनुष्ठान करूँ। आप सभी लोग गुणी महात्मा हैं। कृपया मुझे बताइए कि मेरी पुत्र प्राप्ति की इच्छा किस प्रकार पूर्ण होगी ?’’
‘‘यह तो बहुत अच्छा विचार है राजन् !’’ महामुनी वासिष्ठ ने उनका अनुमोदन करते हुए कहा और उनकी प्रशंसा की।
जबालि और वामदेव मुनियों ने, सुमंत्र आदि मंत्रियों ने भी इस पर अपनी प्रसन्नता प्रकट की और समर्थन करते हुए कहा, ‘‘महाराज ! यह बहुत उत्तम विचार है। इसके लिए शीघ्र ही यज्ञ-सामग्री का संग्रह किया जाए।’’
यज्ञ के लिए विचार करते हुए सरयू नदी के तट पर बनायी गई। भूमंडल में भ्रमण के लिए यज्ञ का अश्व छोड़ा गया और मुनि और मुनि कुमार ऋषि श्रृंग को यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त किया गया।
महाराज दशरथ के इस पावक यज्ञ में वेद के अनेक पारंगत ब्राह्मण और ब्रह्मवादी ऋत्विज उपस्थित हुए।
मुनि वसिष्ठ और ऋष्य श्रृंग दोनों के आदेश से शुभ नक्षत्रवाले दिन महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के साथ यज्ञ की दीक्षा ली। इस समय तक यज्ञ का अश्व भी भूमंडल में भ्रमण करके लौट आया था।
इस यज्ञ में विधिवत आहुतियां दी गईं। सभी कार्य बिना बाधा और बिना भूल के सम्पन्न हुए। यज्ञ में प्रतिदिन अनेक ब्राह्मण भोजन करते थे, सभी को उनका यथा अनुरूप यज्ञोशेष प्राप्त होता था। अपने कुल की वृद्धि करनेवाले महाराज दशरथ ने यज्ञ पूर्ण होने पर होता को दक्षिणा रूप में अयोध्या से पूर्व दिशा का सारा राज्य सौंप दिया। अध्वर्यु को पश्चिम दिशा तथा ब्रह्मा को दक्षिण दिशा का राज्य दिया और उदगाता को उत्तर दिशा की सारी भूमि दान की।
यह दान देकर महाराज दशरथ प्रसन्न हुए किन्तु ब्राह्मणों और पुरोहितों ने उनसे निवेदन किया, ‘‘हे महाराज ! हम तो वेदों का स्वाध्याय करते हैं, हम इस भूमि का क्या करेंगे। आप तो हे राजन ! हमें इस भूमि के मूल्य के समान कोई राशि दें, वही उपयोगी होगा।’’
यह देखकर महाराज ने उन्हें गौएं और स्वर्ण मुद्राएं भेंट की।
यज्ञ की समाप्ति पर महाराज दशरथ ने मुनी ऋष्य श्रंग से अपने लिए पुत्रप्राप्ति के लिए अनुष्ठान करने के लिए निवेदन किया।
‘‘राजन ! इस कुल के भार को वहन करने में समर्थ आपके यहां चार पुत्र उत्पन्न होंगे।’’ यह कहते हुए महामुनी ऋष्य श्रंग ने अर्थववेद के मंत्रों से पुत्रेष्ठि यज्ञ का प्रारम्भ किया और विधि के अनुसार उसमें आहुतियां डालीं।
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